रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़
संपादकीय : टूटती विश्व-व्यवस्था और नए संतुलन की तलाश
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद जिस एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था की परिकल्पना की गई थी, वह अब इतिहास के पन्नों में सिमटती दिखाई दे रही है। आज की दुनिया न तो पूर्ण रूप से बहुध्रुवीय हो पाई है और न ही पुराने संतुलन को बनाए रखने में सक्षम है। इसके स्थान पर उभर रही है एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था, जो अनिश्चितता, टकराव और अविश्वास से भरी हुई है।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सैन्य शक्ति आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का निर्णायक उपकरण बनी हुई है। यूरोप, जो स्वयं को शांति और कूटनीति का प्रतीक मानता रहा, एक बार फिर हथियारों की राजनीति के केंद्र में खड़ा है। यह संघर्ष केवल दो देशों के बीच युद्ध नहीं, बल्कि नाटो और रूस के बीच प्रभाव क्षेत्र की टकराहट का परिणाम है। इसके दीर्घकालिक प्रभाव वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा, खाद्य आपूर्ति और सामरिक स्थिरता पर पड़ रहे हैं।
मध्य पूर्व में जारी संघर्ष वैश्विक व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक है। दशकों से जारी अस्थिरता ने यह साबित कर दिया है कि सैन्य समाधान स्थायी शांति नहीं ला सकते। यहाँ मानवीय संकट जितना गहराता जा रहा है, उतना ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नैतिक जिम्मेदारी पर प्रश्नचिह्न लग रहा है। संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संस्थानों की भूमिका सीमित और अक्सर असहाय दिखाई देती है, जिससे उनकी प्रासंगिकता पर बहस तेज होती जा रही है।
अमेरिका और चीन के बीच बढ़ता रणनीतिक तनाव वैश्विक व्यवस्था की दिशा तय करने वाला सबसे बड़ा कारक बन चुका है। व्यापार युद्ध, तकनीकी प्रतिबंध और सैन्य प्रतिस्पर्धा ने दुनिया को नए प्रकार के शीत युद्ध की ओर धकेल दिया है। यह टकराव केवल दो महाशक्तियों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं, विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार संरचना को भी प्रभावित करेगा।
आर्थिक दृष्टि से देखें तो वैश्विक बाजारों में अनिश्चितता गहराती जा रही है। सुरक्षित निवेश विकल्पों की ओर पूंजी का झुकाव यह संकेत देता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था विश्वास के संकट से गुजर रही है। बढ़ती महंगाई, कर्ज़ का बोझ और विकास दर में गिरावट कई देशों को सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता की ओर ले जा रही है। यह स्थिति वैश्विक असमानता को और तीव्र कर सकती है।
इस पूरी परिदृश्य में सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि वैश्विक शासन प्रणाली वर्तमान चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में विफल हो रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की संरचना, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की नीतियाँ और वैश्विक निर्णय प्रक्रिया आज भी बीते युग की वास्तविकताओं पर आधारित हैं। उभरती शक्तियों और विकासशील देशों की आवाज़ को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलना असंतोष को जन्म दे रहा है।
दुनिया आज ऐसे दौर में प्रवेश कर चुकी है जहाँ शक्ति का अर्थ केवल सैन्य बल नहीं, बल्कि तकनीक, डेटा, ऊर्जा और नैरेटिव नियंत्रण भी है। साइबर युद्ध, सूचना युद्ध और आर्थिक प्रतिबंध नई विश्व-राजनीति के हथियार बन चुके हैं। इस बदले स्वरूप को समझे बिना स्थायी शांति की कल्पना करना कठिन है।
अंततः, वैश्विक व्यवस्था को किसी एक शक्ति या गुट के प्रभुत्व से नहीं, बल्कि संतुलन, संवाद और सहयोग से स्थिर किया जा सकता है। बहुध्रुवीय विश्व तभी टिकाऊ होगा जब वह प्रतिस्पर्धा के साथ जिम्मेदारी को भी साझा करे। आज की दुनिया को सैन्य गठबंधनों से अधिक नैतिक नेतृत्व और संस्थागत सुधार की आवश्यकता है।
यह समय है आत्ममंथन का—क्या मानवता इतिहास से सीख ले पाएगी, या वही गलतियाँ नए नाम और नए हथियारों के साथ दोहराई जाएँगी? टूटती विश्व-व्यवस्था के इस दौर में उत्तर इसी प्रश्न में छिपा है।
