रविंद्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़
संसद का मॉनसून सत्र हंगामे के हवाले: जनता के करोड़ों रुपये बर्बाद
दिल्ली। भारत की संसदीय परंपरा लोकतंत्र की रीढ़ कही जाती है। संसद वह सर्वोच्च मंच है जहाँ जनता की आवाज़ प्रतिनिधियों के माध्यम से गूंजती है और देशहित के महत्वपूर्ण क़ानून, नीतियाँ और फैसले लिए जाते हैं। मगर हालिया मॉनसून सत्र 2025 ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हमारी संसद वास्तव में जनता की उम्मीदों पर खरी उतर रही है?
कार्यवाही से अधिक हंगामा
संसद के इस सत्र का अधिकांश समय विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप, नारेबाज़ी और वॉकआउट में बीता।
लोकसभा में मात्र 31% कामकाज हुआ।
राज्यसभा की स्थिति भी बेहतर नहीं रही, यहाँ भी केवल 38% कार्यवाही ही संपन्न हो पाई।
इसका मतलब है कि बाकी समय संसद का बहुमूल्य समय शोरगुल और विरोध-प्रदर्शन की भेंट चढ़ गया।
जनता के पैसों की बर्बादी
संसद का हर मिनट बेहद महंगा होता है। अधिकारियों के मुताबिक़ संसद का एक दिन चलने पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं—जिसमें सांसदों का वेतन-भत्ता, संसदीय स्टाफ, सुरक्षा, बिजली-पानी, प्रशासन और अन्य व्यवस्थाएँ शामिल होती हैं।
अनुमान है कि इस सत्र में मात्र हंगामे के चलते करीब 204 करोड़ रुपये जनता के कर के पैसे बर्बाद हो गए। यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे या किसानों के कल्याण पर खर्च की जा सकती थी, लेकिन वह शोरगुल में जाया हो गई।
कौन-से मुद्दे दबे रह गए
सत्र के एजेंडे में कई अहम विषय शामिल थे—
किसानों की आय और समर्थन मूल्य का सवाल
बेरोजगारी और महंगाई की समस्या
महिला सुरक्षा से जुड़े विधेयक
राज्यों को वित्तीय मदद
नई शिक्षा नीति और स्वास्थ्य ढाँचे पर चर्चा
लेकिन इनमें से अधिकतर विषय अधर में ही रह गए।
जनता की उम्मीदें बनाम सांसदों का आचरण
लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को संसद इसलिए भेजती है ताकि वे उसकी समस्याएँ उठाएँ और समाधान ढूँढें। लेकिन जब संसद बहस की जगह शोरगुल का अखाड़ा बन जाए, तो लोकतंत्र की गरिमा ही दांव पर लग जाती है।
जनता सवाल पूछ रही है:
क्या सांसदों को यह अधिकार है कि वे जनता के पैसे और समय को यूँ ही नष्ट करें?
क्या हंगामे से समस्याओं का समाधान निकलेगा?
क्या संसद में बैठने वाले जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह हैं?
समाधान की राह
1. कड़े नियम: जो सांसद लगातार हंगामा करते हैं, उनकी उपस्थिति भत्ता काटा जाए।
2. उत्पादकता आधारित मूल्यांकन: सांसदों की कार्यक्षमता उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों, बहस में भागीदारी और प्रस्तावित विधेयकों से आँकी जाए।
3. जनजागरूकता: जनता को यह समझना होगा कि उनका पैसा कहाँ और कैसे खर्च हो रहा है, और सांसदों से जवाबदेही मांगनी होगी।
4. संसदीय अनुशासन: सत्ता और विपक्ष दोनों को मिलकर संसद को संवाद का मंच बनाना होगा, टकराव का नहीं।
संसद लोकतंत्र का मंदिर है, और यहाँ हंगामा नहीं, संवाद होना चाहिए। मॉनसून सत्र 2025 की नाकामी ने यह साबित कर दिया कि अगर राजनीतिक दल केवल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करेंगे, तो नुकसान देश और जनता का ही होगा। 204 करोड़ रुपये की बर्बादी सिर्फ एक आँकड़ा नहीं, बल्कि यह हर करदाता के पसीने की कमाई है।
जनता अब यही चाहती है कि संसद अपने वास्तविक उद्देश्य— बहस, नीति-निर्माण और जनहित के निर्णय—पर लौटे, ताकि लोकतंत्र मज़बूत हो सके।
