रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़
आईपीएस य. पूरन कुमार: पोस्टमार्टम रुका, परिवार DGP की गिरफ्तारी पर अड़ा — क्या हरियाणा सरकार जल्द बड़ा फैसला लेगी?
चंडीगढ़ / हरियाणा, 12 अक्टूबर 2025 — हरियाणा कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी य. पूरन कुमार की 7 अक्टूबर रात को चंडीगढ़ स्थित आवास पर मिली मौत के बाद छह दिन बीत चुके हैं, पर पोस्टमार्टम और अंतिम संस्कार पर अभी भी ठहराव है। मामले ने राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक मंचों पर हलचल पैदा कर दी है और परिवार — खासकर मृतक के परिजन — मामले में राज्य के शीर्ष अधिकारीयों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग पर अड़े हुए हैं।
क्या हो रहा है अब — घटनाक्रम
7 अक्टूबर: चंडीगढ़ के सेक्टर-11 स्थित आवास के बेसमेंट में 2001-बैच के हरियाणा-कैडर आईपीएस य. पूरन कुमार को गोली लगने की सूचना मिली; उन्हें मृत घोषित किया गया। (घटना की तारीख और शुरुआती रिपोर्ट्स)।
परिवार ने आरोप लगाए कि पूरन ने अपनी अंतिम चिट्ठी/नोट में कई वरिष्ठ अधिकारियों के नाम लिए थे और उन पर जातिगत उत्पीड़न, मानसिक प्रताड़ना और सार्वजनिक अपमान के आरोप लगाये थे। मामला जल्द ही जाति-सेंसिटिव मामला बन गया।
परिजन और शव रखने वाले हिस्से के बीच अनबन के चलते पोस्टमॉर्टम अभी तक पूरा नहीं हुआ; परिवार ने पोस्ट-मॉर्टम की सहमति रोक रखी है जब तक कि उनकी मांगें — जिनमें शामिल है एफआईआर में नामजद अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई और DGP की गिरफ्तारी — पूरी नहीं होतीं।
प्रशासन ने मामले की जांच के लिए SIT (विशेष जांच दल) गठित किया और राज्य सरकार ने पहली क्रमिक कार्रवाई में रोहतक के एसपी नरेंद्र बिजारणिया को हटाकर (शंटिंग/तबादला) प्रशासनिक संकेत दिए।
परिवार की मांगें और विवाद के केंद्र
परिवार (और विशेषकर उनकी पत्नी, आईएएस अमनीत पी. कुमार) की मुख्य मांगें ये हैं:
1. एफआईआर में जिन नामों का जिक्र पूरन ने किया है, उन्हें ‘आरोपी/जिम्मेदार’ कॉलम में शामिल किया जाए।
2. जिन वरिष्ठ अधिकारियों का नाम है — विशेषकर हरियाणा DGP और रोहतक-एसपी जैसे लोग — उनके खिलाफ निलंबन/गिरफ्तारी या कम-से-कम फ़िलहाल पदच्यु़ति की जाए।
3. त्वरित, स्वतन्त्र और पारदर्शी जांच — परिवार का आरोप है कि मामला सिर्फ निजी मामला नहीं, बल्कि सिस्टमेटिक हेरासमेंट/जातिगत भेदभाव का प्रतीक है।
परिवार के इन रुख के बाद पोस्टमॉर्टम और अंतिम संस्कार को लेकर विवाद भी बढ़ा — परिवार का कहना है कि प्रशासन ने शव को बिना पूरी सहमति के अस्पताल स्थानांतरित किया, जिससे भावनात्मक तनाव और अविश्वास और गहरा गया।
प्रशासनिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया
चंडीगढ़ पुलिस और हरियाणा शासन ने सार्वजनिक दबाव और मीडिया कवरेज के बाद तत्काल कार्रवाई के संकेत दिए — रोहतक SP का तबादला किया गया और एक SIT गठित कर दी गई है। शीर्ष नेताओं ने जांच की गारंटी देने के संकेत दिए, साथ ही मुख्यमंत्री ने भी कहा है कि दोषियों को नहीं बख्शा जाएगा।
विपक्ष और समाजिक-संगठनों ने मामले को जाति-प्रेरित उत्पीड़न के परिप्रेक्ष्य में उठाया है; कुछ दलों ने स्वतंत्र सीबीआई/एसआईटी जांच की मांग भी रखी है। मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि यह मामला राज्य सरकार के लिए नैतिक व राजनीतिक चुनौती बन चुका है।
क्या हरियाणा सरकार “बड़ा फैसला” ले सकती है?
अभी तक जो ठोस प्रशासनिक कदम लिए गए हैं वे हैं: एसआईटी की स्थापना और रोहतक एसपी का तबादला। मौजूदा राजनीतिक-प्रशासनिक दबाव के मद्देनजर राज्य सरकार के विकल्पों में ये कदम आमतौर पर आते हैं: और अधिकारीयों का निलंबन/स्थानांतरण, एफआईआर में फेरबदल कर नामजद अधिकारियों को आरोपित करना, उन पर गिरफ्तारियाँ (यदि जांच में सबूत मिले), या स्वतंत्र तृतीय-पक्ष जांच (जैसे कि केंद्रीय एजेंसी) देना। इन विकल्पों में से किस पर सरकार कदम उठाएगी — यह जांच की प्रगति, राजनैतिक लागत और न्यायिक/कानूनी पहलुओं पर निर्भर करेगा। (सरकारी धाराओं और मीडिया रिपोर्टों के आधार पर निर्णायक कदमों की संभावना पर लक्षित विश्लेषण)।
जातिवाद-आधारित चिंता — क्यों यह सिर्फ ‘अधिकारियों की आपसी कट्टरता’ नहीं है
कई रिपोर्टों ने इस मामले को जातिगत संवेदनशीलता के संदर्भ में स्थान दिया है — मृतक अधिकारी दलित समुदाय (Scheduled Caste) से संबंध रखते थे और उनके सुसाइड-नोट में जिन आरोपों का हवाला है वह सिर्फ व्यक्तिगत तनाव नहीं बल्कि संस्थागत भेदभाव/छूट-छूट की शिकायतें भी लगाते हैं। ऐसे आरोप — जब वे सशक्त व्यक्ति के ज़रिए उठते हैं — प्रशासनिक तंत्र की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर बड़े सवाल खड़े कर देते हैं। विशेषज्ञ टिप्पणी यह बताती है कि ऐसे मामलों में त्वरित, स्वतंत्र और पारदर्शी जांच की कमी सामाजिक आक्रोश और राजनैतिक विवाद को और तेज कर देती है।
क्या अक्षमता या साजिश? — कानूनी/नैतिक आयाम
कानूनी तौर पर यह तय किया जाएगा कि क्या यह आत्महत्या का क्लियर-कट मामला है या किसी तरह की जबर्दस्ती/दबाव/प्रेरणा (abetment) के तत्व हैं। अगर सुसाइड-नोट, साक्ष्य और गवाही यह दिखाते हैं कि किसी ने मानसिक अथवा वैधानिक रूप से प्रेरित किया, तो संबंधित धाराएँ जैसे IPC की धारा 306 (abetment of suicide) लागू हो सकती हैं — बशर्ते जांच में सबूत मिले। परिवार की मांगों पर पोस्टमॉर्टम-रिपोर्ट और Forensic दस्तावेज निर्णायक होंगे — पर फिलहाल पोस्टमॉर्टम रुकने के कारण यह विज्ञानिक रेखांकन भी लंबित है।
क्या रिपोर्टिंग और प्रशासनिक कार्रवाई पर्याप्त है?
मौजूदा घटनाक्रम से स्पष्ट है कि:
पारिवारिक विश्वास-घात और प्रशासन पर अविश्वास को दूर करने के लिए कठोर पारदर्शिता आवश्यक है।
यदि सरकार केवल सजाए-तबादले या आधा-आधुरा जवाब देती है तो मामला और गहरा-सामाजिक तनाव पैदा कर सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण: जांच त्वरित, स्वतंत्र और ठोस साक्ष्य-आधारित हो — तभी दोषियों की सज़ा और परिजनों का भरोसा दोनों संभव हैं।
निष्कर्ष — अब आगे क्या होगा
अभी समाधान की चाबी है: ऑटोप्सी/फोरेंसिक रिपोर्ट, एसआईटी की निष्पक्ष रिपोर्ट, और प्रशासनिक/कानूनन करवाई — और ये तीनों जितने पारदर्शी होंगे, सार्वजनिक भरोसा उतना ही जल्दी बहाल हो पाएगा। राज्य सरकार पर दबाव है कि वह किसी भी बड़े प्रशासनिक फैसले (जैसे गिरफ्तारी, निलंबन, केंद्रीय जांच) में पारदर्शिता और संवेदनशीलता दिखाए — वरना मामला राजनीतिक एवं सामाजिक रूप में और तेज़ी से फैल सकता है।
