अफगानिस्तान में भारत की भूमिका — मानवीय सहयोग से कूटनीति की नई परिभाषा

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रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़
अफगानिस्तान में भारत की भूमिका — मानवीय सहयोग से कूटनीति की नई परिभाषा

नई दिल्ली, 3 नवम्बर ।
अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ एक बार फिर उस मोड़ पर हैं, जहाँ शांति, सत्ता और सरोकार तीनों का संघर्ष साफ दिखाई देता है।
तालिबान शासन की पुनर्वापसी ने जहाँ अफगान जनता के जीवन को अस्थिरता में झोंक दिया, वहीं वैश्विक समुदाय भी एक प्रकार की दुविधा में फँसा हुआ है — “संवाद” किया जाए या “बहिष्कार”?
भारत ने इस द्वंद्व से ऊपर उठकर एक तीसरा मार्ग चुना है — मानवीय सहायता के जरिये कूटनीति की निरंतरता।

सदियों पुरानी आत्मीयता का आधुनिक रूप

भारत और अफगानिस्तान का संबंध केवल भौगोलिक पड़ोसीपन का नहीं, बल्कि साझा संस्कृति, भाषा और इतिहास का रिश्ता है।
गांधार सभ्यता से लेकर बौद्ध दर्शन तक, दोनों देशों की जड़ें एक ही सांस्कृतिक धरातल पर पनपी हैं।
भारत ने हमेशा इस रिश्ते को सत्ता की राजनीति से ऊपर रखकर, जनता से जनता के रिश्ते के रूप में देखा है।

जब 2001 के बाद अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण की आवश्यकता हुई, तब भारत ने बिना किसी शर्त के स्कूल, अस्पताल, सड़कें, और संसद भवन तक बनवाए।
यह केवल सहायता नहीं थी, बल्कि विश्वास की पुनर्स्थापना थी — जो आज भी भारत की अफगान नीति का आधार है।

कूटनीति का मानवीय चेहरा

अफगानिस्तान में वर्तमान शासन को लेकर वैश्विक असमंजस के बीच भारत ने “जनता पहले” की नीति अपनाई है।
गेंहू, दवाइयाँ और जीवनरक्षक सहायता के माध्यम से भारत यह संदेश देता रहा है कि राजनीति से परे मानवीयता का संबंध नहीं टूटना चाहिए।
यह दृष्टिकोण भारत की विदेश नीति के उस मूल सिद्धांत का प्रतीक है — जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ केवल एक नारा नहीं, बल्कि व्यवहारिक नीति बन जाती है।

रणनीतिक चुप्पी या परिपक्व कूटनीति?

कुछ समीक्षकों का मानना है कि भारत को तालिबान के साथ प्रत्यक्ष संवाद में अधिक सक्रिय होना चाहिए, जबकि कुछ इसे जोखिमपूर्ण मानते हैं।
वास्तव में भारत इस समय एक “रणनीतिक धैर्य” की नीति पर है।
यह न तो आत्मसमर्पण है और न ही दूरी बनाना — बल्कि एक परिपक्व प्रतीक्षा है कि परिस्थितियाँ ऐसी हों जहाँ संवाद स्थायी समाधान की ओर बढ़ सके।

पाकिस्तान और चीन की भूमिका पर संतुलन

अफगानिस्तान के समीकरणों में पाकिस्तान और चीन की बढ़ती दखलअंदाजी भारत के लिए चिंता का विषय है।
परंतु भारत ने इस प्रतिस्पर्धा को शत्रुता में नहीं, बल्कि अपने दीर्घकालिक हितों के अनुरूप देखा है।
भारत जानता है कि स्थिर अफगानिस्तान ही दक्षिण एशिया की स्थिरता की गारंटी है — चाहे वह सुरक्षा का मुद्दा हो या व्यापारिक गलियारों का।

महिलाओं और शिक्षा का प्रश्न

अफगानिस्तान में महिलाओं और बालिकाओं के अधिकारों पर जो संकट उत्पन्न हुआ है, उस पर भारत की स्थिति स्पष्ट है — शिक्षा और समानता से समझौता अस्वीकार्य है।
भारत की सहायता योजनाएँ आज भी उन वर्गों तक पहुँचने की कोशिश कर रही हैं, जिन्हें वैश्विक राजनीति अक्सर भूल जाती है।
यही भारत की नैतिक शक्ति है — जो किसी भी हथियार से अधिक प्रभावी है।

भविष्य की राह

भारत को अब अपनी अफगान नीति को और अधिक क्षेत्रीय तालमेल से जोड़ने की आवश्यकता है।
“हार्ट ऑफ एशिया” और “एससीओ” जैसे मंचों पर भारत की सक्रिय भूमिका न केवल अफगानिस्तान बल्कि सम्पूर्ण मध्य एशिया की स्थिरता के लिए भी अनिवार्य है।
भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी मानवीय नीति, आर्थिक सहयोग और सुरक्षा चिंताएँ एक ही दिशा में संतुलित रूप से आगे बढ़ें।

निष्कर्ष

अफगानिस्तान में भारत की भूमिका केवल एक पड़ोसी देश की नहीं, बल्कि एक नैतिक शक्ति की है।
जब अधिकांश देश अपने हितों की गणना में उलझे हैं, भारत वहाँ मानवता के पुल बना रहा है।
यह वही नीति है जो भारत को अलग पहचान देती है — एक ऐसा राष्ट्र जो न तो हथियारों से, न ही शर्तों से, बल्कि विश्वास से संबंध बनाता है।

भारत की यही नीति भविष्य में न केवल अफगानिस्तान के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए शांति का आधार बन सकती है।

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