आज़म ख़ान: सियासत का घायल शेर और बदलता जंगल

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रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़ 

आज़म ख़ान: सियासत का घायल शेर और बदलता जंगल

लखनऊ। कभी समाजवादी राजनीति की रूह माने जाने वाले आज़म ख़ान, अब उसी पार्टी की चौखट पर बोझ से ज़्यादा कुछ नहीं दिखते। जेल से रिहाई के बाद उनकी चुप्पी उस शेर जैसी है, जो घायल है मगर शिकारी को यह भरोसा नहीं कि उसकी दहाड़ खत्म हो चुकी है। सवाल यही है कि यह शेर अब किस जंगल में बसेरा करेगा—खुद का जंगल बनाएगा, किसी और का हिस्सा बनेगा, या फिर अकेले ही दहाड़ेगा।

बेग़ानगी की कहानी

सपा के साथ आज़म का रिश्ता उस पुराने साथी की तरह है, जिसे बरसों संघर्ष में कंधा देने को कहा गया और जब जीत की दावत आई तो दरवाज़े पर ही खड़ा छोड़ दिया गया।

जेल के कठिन दौर में पार्टी नेतृत्व मौन साधे रहा।

2022 में अखिलेश यादव ने खुद को नेता विपक्ष घोषित किया, मगर आज़म की दशकों की तपस्या को अनदेखा कर दिया।

उनकी पत्नी तंज़ीन फ़ातिमा तक कह उठीं—“अब भरोसा सिर्फ अल्लाह पर है।”

एक दौर में सपा का “मुस्लिम चेहरा” कहे जाने वाले आज़म, अब सपा के लिए बोझ का दूसरा नाम हो गए हैं।

 

मुस्लिम वोट: अब बपौती नहीं

समाजवादी पार्टी यह मानकर चलती रही कि मुस्लिम वोट उसकी स्थायी जायदाद हैं। लेकिन समय बदल चुका है।

कुंदरकी उपचुनाव में सपा प्रत्याशी की जमानत ज़ब्त होना इस सोच पर करारा तमाचा है।

पश्चिमी यूपी और रुहेलखंड के मुसलमान अब सवाल पूछ रहे हैं—“क्या हमें सिर्फ वोट डालने और जेल जाने के लिए रखा गया है?”

इस नाराज़गी का सबसे बड़ा लाभ वही उठा सकता है, जिसके पास समुदाय का भरोसा है—और आज़म ख़ान के नाम पर यह भरोसा अब भी कायम है।

90 के दशक की यादें: जब सपा-बसपा बने थे साझीदार

आज़म ख़ान की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए 90 का दशक याद करना होगा।

1993 में मुलायम सिंह यादव और मायावती ने भाजपा को रोकने के लिए सपा-बसपा गठबंधन किया था। “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम”—यह नारा गली-गली गूंजा।

उस दौर में दलित और मुस्लिम का समीकरण उत्तर प्रदेश की राजनीति का निर्णायक फार्मूला बन गया।

लेकिन 1995 के गेस्ट हाउस कांड ने यह गठबंधन चकनाचूर कर दिया और तब से सपा-बसपा एक-दूसरे के लिए दुश्मन से कम नहीं रहे।

आज की तस्वीर कुछ वैसी ही है। मुस्लिम वोट बैंक के बिखरने से सपा की नींव डगमगा सकती है और बसपा को नया जीवन मिल सकता है। अगर आज़म ख़ान बसपा का दामन थामते हैं तो यह 90 के दशक के उस पुराने “मुस्लिम-दलित समीकरण” को फिर से हवा दे सकता है।

संभावनाओं की चौसर

1. नई पार्टी – अगर आज़म नई पार्टी बनाते हैं तो पश्चिमी यूपी और रुहेलखंड में उनका प्रभाव साफ़ दिखाई देगा। लेकिन संसाधन और संगठन की कमी इस राह को कठिन बनाती है।

2. बसपा का साथ – मायावती के साथ जाना सपा के लिए सबसे बड़ा झटका होगा। मुस्लिम-दलित समीकरण फिर से आकार ले सकता है। मगर सवाल यह है कि क्या दो परस्पर विरोधी नेतृत्व शैलियाँ एक मंच पर टिक पाएंगी?

3. कांग्रेस का रुख – कांग्रेस आज़म को तुरुप का इक्का मान सकती है, पर यूपी में कांग्रेस का ढांचा उतना ही कमजोर है जितना पुराने मकान की दीवार।

4. सपा में रहकर विद्रोह – सम्मान और भरोसा खत्म हो चुके हैं, ऐसे में यह रास्ता केवल औपचारिकता होगा।

 

असर की गूँज

नई पार्टी बनने पर मुस्लिम वोटों में बिखराव होगा, जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा।

बसपा का विकल्प चुनने पर अखिलेश यादव का “मुस्लिम-यादव समीकरण” टूट जाएगा।

कांग्रेस में जाने से भले बड़ा असर न पड़े, पर यह सपा के लिए प्रतीकात्मक हार होगी।

 

आज़म ख़ान कहते हैं—“इलाज के बाद निर्णय लूंगा।” असल में यह इलाज केवल सेहत का नहीं, बल्कि राजनीति के घावों का भी है।
उनकी अगली चाल चाहे नई पार्टी बनाना हो, बसपा का साथ देना हो या कांग्रेस का सहारा लेना—हर सूरत में सपा के लिए यह एक बड़ा झटका होगा।

1990 के दशक में जैसे सपा-बसपा गठबंधन ने राजनीति का नक्शा बदल दिया था, वैसे ही आज़म ख़ान की अगली चाल भी यूपी की सियासत का नया मानचित्र खींच सकती है। मुस्लिम राजनीति अब सपा की बपौती नहीं रही—यह संदेश आज़म ख़ान पहले ही दे चुके है।

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