वंदे मातरम” के 150 वर्ष : राष्ट्र की आत्मा का स्वर, आज़ादी के आंदोलन की प्रेरणा

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रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़

वंदे मातरम” के 150 वर्ष : राष्ट्र की आत्मा का स्वर, आज़ादी के आंदोलन की प्रेरणा

वंदे मातरम’ केवल एक गीत नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की धड़कन रहा है—जिसने देशभक्ति की भावना को जन-जन तक पहुँचाया।

 

नई दिल्ली, 7 नवम्बर। भारत का राष्ट्रीय गीत “वंदे मातरम” आज अपने गौरवशाली 150 वर्ष पूरे कर रहा है। 1875 में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत केवल शब्दों का संकलन नहीं, बल्कि भारतीय अस्मिता, मातृभूमि के प्रति समर्पण और स्वतंत्रता की चाह का प्रतीक बन गया। इस गीत ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अद्भुत प्रेरणा दी और हर देशभक्त के हृदय में अग्नि प्रज्वलित की।

रचना का इतिहास

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने “वंदे मातरम” की रचना 1875 में की थी। यह गीत उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (प्रकाशन: 1882) में सम्मिलित है। उपन्यास में यह गीत माँ भारती के सम्मान में गाया गया, जहाँ “माँ” का स्वरूप भारतभूमि के रूप में प्रस्तुत किया गया।
गीत के संस्कृत और बंगला मिश्रित शब्दों ने इसे अद्भुत सौंदर्य दिया — “सुजलां सुफलां मलयजशीतलां, शस्यश्यामलां मातरम्।” इस पंक्ति में भारत माता का चित्रण जल, फल, वायु, अन्न और हरियाली से सम्पन्न एक पावन भूमि के रूप में किया गया है।

आजादी की लड़ाई में भूमिका

“वंदे मातरम” स्वतंत्रता आंदोलन का घोषवाक्य बन गया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय यह गीत हर सभा, जुलूस और सत्याग्रह में गूंजने लगा।
राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में यह गीत गाया जाता था — 1896 में पहली बार इसे रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कांग्रेस अधिवेशन (कलकत्ता) में स्वरबद्ध रूप में प्रस्तुत किया।
1911 में जब अंग्रेज़ों ने बंगाल के विभाजन को लागू किया, तब यही गीत विरोध का सबसे बड़ा प्रतीक बना। “वंदे मातरम” के उद्घोष से ब्रिटिश शासन की नींव हिलने लगी थी।

क्रांतिकारियों का नारा बना ‘वंदे मातरम’

भगत सिंह, बिपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविंद घोष, और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने ‘वंदे मातरम’ को अपना युद्धघोष बना लिया था।
अनेक आंदोलनों में यह गीत प्रतिबंधित कर दिया गया, परंतु उसके स्वरों को रोकना असंभव था। जेलों की दीवारों से लेकर गांवों के चौपालों तक — ‘वंदे मातरम’ ने देश को एकता के सूत्र में बाँध दिया।

राष्ट्रीय गीत का दर्जा

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने “वंदे मातरम” को भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित किया। वहीं “जन गण मन” को राष्ट्रीय गान के रूप में मान्यता दी गई।
संविधान सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि

> “वंदे मातरम हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की आत्मा है। इसे सम्मान देना हर भारतीय का कर्तव्य है।”

 

संगीत और संस्कृति में स्थान

वर्षों से “वंदे मातरम” अनेक रूपों में स्वरबद्ध हुआ — रवीन्द्रनाथ टैगोर, हेमंत कुमार, लता मंगेशकर से लेकर ए.आर. रहमान तक ने इसे अपने सुरों में ढाला।
यह गीत हर राष्ट्रीय पर्व, विद्यालय के समारोह, और सांस्कृतिक आयोजन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
इसकी धुन सुनते ही आज भी हृदय में मातृभूमि के प्रति गर्व की अनुभूति होती है।

वंदे मातरम का अर्थ और संदेश

‘वंदे मातरम’ का अर्थ है — “माँ, मैं तुझे नमन करता हूँ।”
यह नमन केवल भूमि का नहीं, बल्कि उस सभ्यता, संस्कृति, और समर्पण की भावना का है जिसने भारत को विश्वगुरु बनाया। यह गीत आज भी भारतीय एकता, समरसता और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बना हुआ है।

150 वर्षों का गौरव

आज जब “वंदे मातरम” के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तो यह केवल एक ऐतिहासिक अवसर नहीं, बल्कि उस भावना को पुनर्जीवित करने का क्षण है जिसने देश को आज़ादी का मार्ग दिखाया।
यह गीत हमें स्मरण कराता है कि मातृभूमि के प्रति प्रेम ही सच्ची देशभक्ति का आधार है।

समापन पंक्तियाँ:

> “वंदे मातरम्” केवल एक गीत नहीं — यह भारत की आत्मा का स्वर है, जो हर युग में, हर भारतीय के हृदय में गूंजता रहेगा।

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