बिहार चुनावी दौर में सामाजिक-आर्थिक सवालों की गूंज रोज़गार, शिक्षा, पलायन और महँगाई पर जनता की कसौटी पर खरे उतरेंगे वादे

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रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़

बिहार चुनावी दौर में सामाजिक-आर्थिक सवालों की गूंज

रोज़गार, शिक्षा, पलायन और महँगाई पर जनता की कसौटी पर खरे उतरेंगे वादे

पटना, 2 नवंबर। बिहार की राजनीति इन दिनों घोषणाओं और नारों के बीच घूम रही है, लेकिन जनता के मन में सबसे बड़ा सवाल है — क्या इस बार विकास के वादे हकीकत में बदल पाएँगे? चुनावी मंचों पर नेताओं की आवाज़ें बुलंद हैं, मगर ज़मीनी स्तर पर अब भी बेरोज़गारी, पलायन और कृषि-संकट जैसे मुद्दे उतने ही गंभीर हैं, जितने एक दशक पहले थे।

रोज़गार : एक करोड़ नौकरियों का वादा और जमीनी सच्चाई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरा की सभा में कहा कि बिहार में आने वाले पाँच वर्षों में एक करोड़ नई नौकरियाँ दी जाएँगी। यह घोषणा युवाओं में उम्मीद तो जगाती है, परंतु पिछली योजनाओं के अधूरे रह जाने का इतिहास इस वादे की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है।
राज्य के श्रम विभाग के आँकड़ों के अनुसार, आज भी बिहार के 45 प्रतिशत युवा असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं, जिनकी औसत मासिक आय दस हजार रुपये से कम है।
विशेषज्ञों का मत है कि उद्योग आधारित निवेश और स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा दिए बिना इतनी बड़ी संख्या में रोज़गार उत्पन्न करना कठिन है।

कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था : अब भी संघर्ष में किसान

राज्य की 70 प्रतिशत आबादी अब भी खेती पर निर्भर है। सिंचाई की कमी, उर्वरकों की लागत और बाज़ार मूल्य में असमानता किसान की कमर तोड़ रही है।
गया, सिवान और मुजफ्फरपुर जैसे जिलों में हाल ही में हुई किसानों की पंचायतों में यह आवाज़ गूँजी कि “कर्ज़ माफी और उचित समर्थन मूल्य” के बिना ग्रामीण अर्थव्यवस्था मज़बूत नहीं हो सकती।
नीतीश सरकार की ‘कृषक समृद्धि योजना’ से कुछ राहत अवश्य मिली है, लेकिन सूक्ष्म स्तर पर क्रियान्वयन की गति धीमी रही है।

शिक्षा : सुधार की दिशा में लंबा रास्ता

बिहार में शिक्षा अब भी चुनावी बहस का बड़ा मुद्दा है।
पिछले वर्षों में विद्यालयों के आधारभूत ढाँचे में सुधार हुआ है, लेकिन शिक्षकों की कमी, डिजिटल संसाधनों की अनुपलब्धता और परीक्षा-प्रणाली में पारदर्शिता को लेकर प्रश्न बने हुए हैं।
पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर अरुण मिश्रा का कहना है — “जब तक शिक्षा और कौशल विकास में समान रूप से निवेश नहीं होगा, तब तक रोज़गार सृजन केवल भाषणों तक सीमित रहेगा।”

पलायन : अवसरों की तलाश में खाली होते गाँव

उत्तर बिहार के जिलों से काम की तलाश में दिल्ली, मुंबई, पंजाब और हरियाणा जाने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है।
रेलवे स्टेशनों पर रोज़ाना बड़ी संख्या में श्रमिक मजदूरी की तलाश में निकलते हैं।
यह पलायन राज्य की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण संकेतक बन गया है — जो यह दिखाता है कि स्थानीय उद्योग और रोज़गार अब भी पर्याप्त नहीं हैं।

महँगाई और जीवनयापन की कठिनाइयाँ

महँगाई ने मध्यम वर्ग और गरीब तबके की कमर तोड़ दी है।
सब्ज़ियों, तेल और अनाज की कीमतें लगातार बढ़ने से आम परिवारों का बजट बिगड़ा है।
शहरी क्षेत्रों में किराया और परिवहन खर्च में 12 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
सरकारी राशन योजना और ‘मुख्यमंत्री खाद्य सुरक्षा योजना’ ने राहत दी है, परंतु वितरण व्यवस्था में अनियमितताएँ अब भी बनी हुई हैं।

महिलाएँ और सामाजिक भागीदारी

महिलाओं की शिक्षा और स्वावलंबन में प्रगति तो हुई है, किंतु ग्रामीण इलाक़ों में घरेलू हिंसा और असमान वेतन की समस्याएँ अब भी गंभीर हैं।
स्वयं सहायता समूहों (SHGs) ने कई क्षेत्रों में परिवर्तन की बयार लाई है, विशेषकर गया, नवादा और पश्चिम चंपारण में, जहाँ महिलाएँ अब छोटे-छोटे व्यवसायों से अपनी पहचान बना रही हैं।

विश्लेषण : विकास और जनभावना का टकराव

राजनीतिक दल विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं, परंतु जनता की नज़र अब नारे पर नहीं, नतीजों पर है।

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