गणपति उत्सव : आस्था, उमंग और संस्कृति का संगम

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रविन्द्र बंसल प्रधान संपादक / जन वाणी न्यूज़         

गणपति उत्सव : आस्था, उमंग और संस्कृति का संगमा 

मुंबई/देशभर। भाद्रपद माह में आने वाला गणेशोत्सव आज केवल महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि पूरे भारत और विदेशों में बसे भारतीयों के लिए आस्था और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बन चुका है। भगवान गणेश, जिन्हें विघ्नहर्ता और मंगलकर्ता कहा जाता है, का यह उत्सव भक्ति, उल्लास और समाजिक मेलजोल का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।

परंपरा और आरंभ

गणेश चतुर्थी का पर्व 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक रूप से मनाने की परंपरा शुरू की थी। उनका उद्देश्य था कि समाज के विभिन्न वर्ग एक साथ आएं और अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रीय चेतना जागृत हो। तभी से यह उत्सव जन-जन का पर्व बन गया।

आयोजन की विशेषता

गणेश प्रतिमा की स्थापना घरों और सार्वजनिक पंडालों में की जाती है। भक्ति गीत, आरती और भजन की गूंज वातावरण को पवित्र बनाती है। दस दिनों तक श्रद्धालु गणपति बप्पा की सेवा करते हैं, लड्डू और मोदक का भोग लगाते हैं। दसवें दिन धूमधाम से प्रतिमा का विसर्जन होता है और गगनभेदी नारों के बीच “गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ” की गूंज से वातावरण भक्तिमय हो उठता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश

गणपति उत्सव केवल धार्मिक पर्व नहीं बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक भी है। पंडालों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और समाज सुधार के संदेश दिए जाते हैं। कई जगहों पर प्लास्टिक मुक्त, इको-फ्रेंडली गणपति की पहल भी दिखाई देती है।

उत्सव की बढ़ती छटा

आज गणेशोत्सव मुंबई, पुणे, नागपुर, हैदराबाद से लेकर दिल्ली, बेंगलुरु और चेन्नई तक अपार धूमधाम से मनाया जाता है। विदेशों में भी भारतीय समुदाय इसे उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाता है, जिससे भारतीय संस्कृति की वैश्विक पहचान मजबूत होती है।

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